Sunday, March 17, 2013

Syaahi !

कुछ लिखता हूँ तो ग़म के मारे अलफ़ाज़ ही निकलते हैं,
खुश-हाल जिंदा-दिल शायरी अब लिखी नहीं जाती !
लिख लिख के ज़िन्दगी के पन्ने भरते जा रहा हूँ,
कमबख्त ये रंज--ग़म की स्याही ख़तम हो नहीं पाती !!

और तो इस स्याही का रंग भी काला है,
इक दफा लग जाए तो छुडाये नहीं छूटती !
जाने क्या खता हो गयी जो थाम लिया मैंने इसे,
वरना ये ज़िन्दगी मुझसे कभी युहीं नहीं रूठती !!

अब तो कलम तोड़ कर भी कोई फायदा नहीं,
यह स्याही खून बनकर मेरी रगों में दौड़ने लगी है !
मेरे दिल के अन्दर इक जद्द--जेहद सी जारी है,
जिस में इसे ख़तम करने की उम्मीद अभी तक जगी है !!

पर लगता है स्याही नहीं मेरे ही अन्दर का वो खून है,
जो मांगता सिर्फ क़ुरबानी है !
शायद इन रगों का कट जाना ही मुनासिब होगा,
गर मुझे इससे निजाद पानी है !!

यह खून बना था उस हारी हुई सोच से ,
जो दिमाग से होकर ज़हन में घर है कर जाती !
काश यह मैंने पहले ही समझ लिया होता,

तो ये स्याही भी उसी पल खत्म हो जातीउसी पल खत्म हो जाती !!